प्रदेश में OPS लागू करना सरकार की मजबूरी, कर्मियों की नाराजगी सत्ता पर हमेशा पड़ी भारी
ब्यूरो: शिमला जो प्रदेश की राजधानी है, उसमें एक वक्त ऐसा था जब देश के नेता गरीब और जरूरतमंद के लिए विकास के नाम पर सरकार बनाते थे। वास्तव में पहले नेता सेवा भाव से राजनीति में आते थे। देश की आम जनता के लिए नई-नई योजनाएं बनती थी। उसके बाद सरकारी कर्मियों पर आधारित नीतियां बनने लगी। सरकार के लिए सरकारी कर्मी वोट बैंक का सबसे बड़ा साधन बन गए। जन सेवक व सरकारी कर्मचारी में बड़ा अंतर ये होता है कि सरकार अफसरशाहों के साथ नीतियां बनाती है ये सरकारी कर्मी उन्हें धरातल पर लागू करने का दम भरते है और इन्ही के इर्द-गिर्द राजनीति का पहिया घूमता है।
ये बात भी सत्य है कि जिस भी सरकार से प्रदेश का कर्मचारी नाराज़ हो गया वह सत्ता से बाहर हो गई। हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का उदाहरण सबके सामने है। जिन्होंने 'No Work No Pay' लागू कर अपने लिए मुख्यमंत्री पद के दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर लिए। अटल बिहारी वाजपेयी के समय पेंशन बन्द करने का निर्णय हुआ था। उसके बाद भाजपा को केंद्र सत्ता में आने के लिए 2014 तक का इंतज़ार करना पड़ा था।
लेकिन अब तो कर्मचारियों का ये गुरुर भी टूट रहा है क्योंकि सरकारी दफ्तरों का धड़ाधड़ निजीकरण हो रहा है। ठकेदार के सौजन्य से भर्तीयां की जा रही है। जो सरकारी कर्मी है वह भी पुरानी पेंशन बहाली का संघर्ष कर रहे है। देश बदल रहा है क्योंकि नेता अपने फायदे के हिसाब से नियम कानून बनाते है। अपनी सुख-सुविधाओं का खास ध्यान रखा जाता है। फ़िर भले ही देश -प्रदेश कर्ज की गर्त में क्यों न डूब जाए। ये बात इसलिए बतानी पड़ रही है क्योंकि जो नेता कभी समाज सेवा करने राजनीति में आते थे वह अपनी सेवा में लग गए है। हिमाचल प्रदेश ही 70 हज़ार करोड़ के कर्ज के बोझ तले दब चुका है ये कर्ज निरंतर बढ़ रहा है।
हालांकि हिमाचल प्रदेश में नेता बढ़ते कर्ज़ को लेकर एक दूसरे पर निशाना साध रहे है। कांग्रेस OPS के मुद्दे पर सत्ता पर काबिज हुई है। कांग्रेस ने OPS बहाली का निर्णय भी कर दिया है। ये कांग्रेस सरकार की मजबूरी है। हालांकि अब पेंशन के लिए कितना कर्ज लेना पड़ेगा ये भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सवाल यहां ये उठता है कि नेता बनने से पहले जिस व्यक्ति के पास कुछ नही होता व चुनाव जीतने के बाद करोड़ पति कैसे बन जाता है?
आपको बता दें कि साल 1974 के दौर में जब एक चूड़ियां बेचने वाले दुकानदार की वजह से हिमाचल में माननीयों के लिए पेंशन लगी थी। मेवा से 1967 से 1972 तक विधायक रहे अमर सिंह जब चुनाव हारे तो उनको परिवार का गुजारा चलाने के लिए चूड़ियां बेचनी पड़ी। डॉ परमार ने जब ये देखा तो उनका मन पसीज गया व 300 रुपए पेंशन का प्रावधान विधायकों के लिए कर दिया। आज 300 रुपए की ये पेंशन 80 हज़ार को पार कर गई। प्रदेश पर कर्जा 70 हज़ार करोड़ पार कर गया। प्रदेश में बेरोजगारी 10 लाख को पार कर गई।
- PTC NEWS